Wednesday, May 12, 2010

धर्म एक सामाजिक विचार

आज का धर्म एक सामाजिक विचार (परिभाषा में परिवर्तन) : हरीश कुमार तेवतिया:


हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और इसाई : चारों ने समाज को आज कम से कम चार भागो में बाट दिया हैं। मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ की एकता की परिभाषा एकजुट होती हैं या चारगुट होती हैं? जो लोग उपरोक्त शब्दों का इस्तमाल करते हैं और एकता को चारगुटों में विभाजित करतें हैं वास्तव में वे व्यापारी हैं


"अगर विभाजित ही करना हैं तो ज्ञान को विभाजित करो जोकि व्यक्तिगत कर्मों से जुड़ा हो, जैसी रूचि, वैसा ज्ञान और सफलता हमारा भविष्य"


ये चार शब्द हमारी पहचान तो हो सकते हैं लेकिन धर्म नहीं, ये चारों शब्द हमारी आस्था, नियति और सोच की पहचान करा सकते हैं क्योंकि धर्म की राह पर चलने वालों ने केवल एक ही मत दिया हैं जो हैं कर्म! हम जगह - जगह पर महापुरषों और ग्रंथों की एक पंक्ति को लिखा पते हैं " हमारा धर्म ही हमारा कर्म हैं!"


फिर मिलेंगे !!

20 comments:

  1. bahut acchi soch hai.............

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  2. "अगर विभाजित ही करना हैं तो ज्ञान को विभाजित करो जोकि व्यक्तिगत कर्मों से जुड़ा हो, जैसी रूचि, वैसा ज्ञान और सफलता हमारा भविष्य"

    excellent.................

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  3. harish , aapne kaafi accha socha hai .....

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  4. एकता की परिभाषा एकजुट होती हैं या चारगुट होती हैं?

    sahi Question hai ...is topic ko PM office tak le jaana hai Harish tumhe apne is blog ke medium se

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  5. बहुत अच्छा व्यक्त किया हैं आपने

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  6. gr8 thinking...keep up the gud work

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  7. sunil shrivastavaMay 13, 2010 at 4:49 PM

    very Great thinking...keep up the gud work

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  8. बहुत ही ज़बरदस्त लिखा है हरीश जी, बहुत खूब!

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  9. bhai achha likha hain (good)

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  10. "अगर विभाजित ही करना हैं तो ज्ञान को विभाजित करो जोकि व्यक्तिगत कर्मों से जुड़ा हो, जैसी रूचि, वैसा ज्ञान और सफलता हमारा भविष्य"

    achhi soch hain (I got it)

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  11. Good thinking..!! but I don't know copy kahan se kiya...

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  12. nice blog....you can do it harish....

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  13. धन्यवाद मित्रों आपकी सेवा में फिर आना चहुँगा

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  14. " हमारा धर्म ही हमारा कर्म हैं

    @ बढ़िया सदविचार

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  15. बहुत खुबसूरत सोच हैं आपकी
    आज के युवा की सोच ऐसी ही होनी चाहिए
    कर्म ही सर्वोपरि हैं

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  16. Wah Harish Babu, Badhia Hai!

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  17. धर्म अर्थात् सत्य / न्याय और नीति
    अधर्म अर्थात् जो धर्म के विपरीत हो
    गीता के अनुसार धर्म की हानि अर्थात् सत्य / न्याय एवं नीति का न होना

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