हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और इसाई : चारों ने समाज को आज कम से कम चार भागो में बाट दिया हैं। मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ की एकता की परिभाषा एकजुट होती हैं या चारगुट होती हैं? जो लोग उपरोक्त शब्दों का इस्तमाल करते हैं और एकता को चारगुटों में विभाजित करतें हैं वास्तव में वे व्यापारी हैं
"अगर विभाजित ही करना हैं तो ज्ञान को विभाजित करो जोकि व्यक्तिगत कर्मों से जुड़ा हो, जैसी रूचि, वैसा ज्ञान और सफलता हमारा भविष्य"
ये चार शब्द हमारी पहचान तो हो सकते हैं लेकिन धर्म नहीं, ये चारों शब्द हमारी आस्था, नियति और सोच की पहचान करा सकते हैं क्योंकि धर्म की राह पर चलने वालों ने केवल एक ही मत दिया हैं जो हैं कर्म! हम जगह - जगह पर महापुरषों और ग्रंथों की एक पंक्ति को लिखा पते हैं " हमारा धर्म ही हमारा कर्म हैं!"
फिर मिलेंगे !!
bahut acchi soch hai.............
ReplyDelete"अगर विभाजित ही करना हैं तो ज्ञान को विभाजित करो जोकि व्यक्तिगत कर्मों से जुड़ा हो, जैसी रूचि, वैसा ज्ञान और सफलता हमारा भविष्य"
ReplyDeleteexcellent.................
harish , aapne kaafi accha socha hai .....
ReplyDeleteएकता की परिभाषा एकजुट होती हैं या चारगुट होती हैं?
ReplyDeletesahi Question hai ...is topic ko PM office tak le jaana hai Harish tumhe apne is blog ke medium se
बहुत अच्छा व्यक्त किया हैं आपने
ReplyDeletegr8 thinking...keep up the gud work
ReplyDeletevery Great thinking...keep up the gud work
ReplyDeleteबहुत ही ज़बरदस्त लिखा है हरीश जी, बहुत खूब!
ReplyDeletebhai achha likha hain (good)
ReplyDelete"अगर विभाजित ही करना हैं तो ज्ञान को विभाजित करो जोकि व्यक्तिगत कर्मों से जुड़ा हो, जैसी रूचि, वैसा ज्ञान और सफलता हमारा भविष्य"
ReplyDeleteachhi soch hain (I got it)
Good thinking..!! but I don't know copy kahan se kiya...
ReplyDeletenice blog....you can do it harish....
ReplyDeleteGood thinking..!!
ReplyDeleteधन्यवाद मित्रों आपकी सेवा में फिर आना चहुँगा
ReplyDeletegOOD ONE
ReplyDeletegOOD ONE
ReplyDelete" हमारा धर्म ही हमारा कर्म हैं
ReplyDelete@ बढ़िया सदविचार
बहुत खुबसूरत सोच हैं आपकी
ReplyDeleteआज के युवा की सोच ऐसी ही होनी चाहिए
कर्म ही सर्वोपरि हैं
Wah Harish Babu, Badhia Hai!
ReplyDeleteधर्म अर्थात् सत्य / न्याय और नीति
ReplyDeleteअधर्म अर्थात् जो धर्म के विपरीत हो
गीता के अनुसार धर्म की हानि अर्थात् सत्य / न्याय एवं नीति का न होना